हज़रत खदीजा और रसूलुल्लाह ﷺ का निकाह – एक मुकद्दस रिश्ते की दास्तान | हज़रत खदीजा अल्लाह और जिब्रील अलैहिस्सलाम का सलाम।
इस्लामी इतिहास में हज़रत खदीजा बिन्ते ख़ुवैलिद रज़ियल्लाहु अन्हा और रसूलुल्लाह मुहम्मद ﷺ के निकाह की दास्तान एक मिसाली मोहब्बत, इज़्ज़त और वफ़ादारी की बेहतरीन मिसाल है। यह निकाह न सिर्फ रसूलुल्लाह ﷺ की ज़िंदगी में एक अहम मोड़ था, बल्कि इस्लामी तहज़ीब का एक अहम हिस्सा भी है।
हज़रत खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा – एक बेहतरीन शख्सियत
हज़रत खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा अरब के मशहूर और शरीफ़ खानदान बानू असद से थीं। वह एक अमीर, समझदार और इज़्ज़तदार तिजारती (व्यापारी) खातून थीं। उनकी अक़्लमंदी, इंसाफ़ और बेहतरीन अख़लाक की वजह से लोग उन्हें "ताहिरा" (पाकीज़ा) कहते थे।
हज़रत खदीजा पहले दो बार निकाह कर चुकी थीं, लेकिन उनके दोनों शौहर इंतकाल कर गए थे। उनके पहले शौहर से उन्हें दौलत और इज़्ज़त मिली, जबकि दूसरे से उन्हें कारोबार का तजुर्बा मिला। उन दोनों की वफात के बाद भी उन्होंने अपने कारोबार को बेहतरीन अंदाज़ में सँभाला और अरब की सबसे नामवर ताजिरों (व्यापारियों) में शुमार होने लगीं।
हज़रत मुहम्मद ﷺ का ईमानदारी और अमानतदारी से भरा सफर
उस दौर में हज़रत मुहम्मद ﷺ की ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी। उन्हें "अस-सादिक" (सच्चे) और "अल-अमीन" (अमानतदार) कहा जाता था। हज़रत खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा ने जब आपकी सच्चाई और अच्छे अख़लाक़ के चर्चे सुने, तो उन्होंने चाहा कि आप उनके लिए कारोबार करें।
उन्होंने अपने खास ग़ुलाम मयसरा के जरिए रसूलुल्लाह ﷺ को कारोबार का ऑफर दिया। आप ﷺ ने यह पेशकश कबूल कर ली और उनका सामान लेकर शाम (सीरिया) के सफर पर निकल पड़े।
इस सफर में हज़रत मुहम्मद ﷺ ने इतनी अमानतदारी और ईमानदारी से कारोबार किया कि हज़रत खदीजा को दो गुना मुनाफा हुआ। मयसरा ने सफर के दौरान देखा कि आप ﷺ हमेशा सच बोलते हैं, किसी से धोखा नहीं करते, और अल्लाह की इबादत में मशगूल रहते हैं।
निकाह की पेशकश और हज़रत खदीजा का ख्वाब
जब मयसरा ने हज़रत खदीजा को आपकी अच्छाइयों और ईमानदारी के बारे में बताया, तो उनका दिल आपकी मोहब्बत से भर गया। एक दिन उन्होंने अपनी एक दोस्त नफीसा बिन्ते मुनय्या के ज़रिए हज़रत मुहम्मद ﷺ को निकाह की पेशकश भेजी।
रसूलुल्लाह ﷺ ने यह बात अपने चाचा अबू तालिब और अपने परिवार से मशविरा की। चूंकि हज़रत खदीजा की शख्सियत बहुत पाकीज़ा थी, इसलिए सबने इस निकाह को सराहा।
निकाह की रस्म और मेहर
हज़रत मुहम्मद ﷺ अपने चाचा अबू तालिब और कुछ करीबी रिश्तेदारों के साथ हज़रत खदीजा के घर पहुँचे। निकाह की तकरीब बहुत सादगी से अंजाम दी गई। हज़रत अबू तालिब ने निकाह का खुत्बा (भाषण) दिया और रसूलुल्लाह ﷺ ने हज़रत खदीजा को 500 दिरहम चाँदी (या कुछ रिवायतों में 20 ऊँट) बतौर मेहर अदा किया। इस तरह यह मुकद्दस रिश्ता कायम हुआ।
निकाह के बाद की ज़िंदगी – मिसाली मोहब्बत और वफ़ादारी
1. बेहतरिन बीवी और हमसफ़र
- हज़रत खदीजा ने हर मुश्किल वक्त में रसूलुल्लाह ﷺ का साथ दिया। जब आप ﷺ ने अपनी नबूवत का ऐलान किया, तो सबसे पहले ईमान लाने वाली शख्स हज़रत खदीजा ही थीं।
2. हर मुश्किल में साथ
- जब क़ुरैश ने रसूलुल्लाह ﷺ का विरोध किया, उनका मज़ाक उड़ाया, और तकलीफ़ें दीं, तब भी हज़रत खदीजा हर हाल में आपके साथ रहीं। उन्होंने अपने पूरे माल और दौलत को इस्लाम की तरक्की के लिए लगा दिया।
3. पहली वह़ी (वह़ी का पहला अनुभव)
- जब हज़रत मुहम्मद ﷺ ग़ारे हिरा में इबादत कर रहे थे, तब जिब्रील अलैहिस्सलाम पहली वह़ी लेकर आए। आप ﷺ बहुत घबराए हुए घर लौटे और फरमाया: "मुझे चादर ओढ़ा दो, मुझे चादर ओढ़ा दो!"
हज़रत खदीजा ने बड़ी मोहब्बत से आपको तसल्ली दी और कहा:
"अल्लाह की क़सम! अल्लाह आपको कभी रुसवा नहीं करेगा। आप सच्चाई के साथ रहते हैं, कमजोरों की मदद करते हैं, गरीबों को खिलाते हैं, मेहमानों की मेहमाननवाजी करते हैं और मुसीबतज़दों की मदद करते हैं।"
इसके बाद वह आपको वरक़ा बिन नवफ़ल (जो एक ईसाई विद्वान थे) के पास ले गईं, जिन्होंने इस वह़ी को हक़ बताया और कहा कि यह वही वही है जो पहले नबियों पर आती थी।
अल्लाह और जिब्रील अलैहिस्सलाम का सलाम
हज़रत खदीजा की इस्लाम के लिए की गई कुर्बानियों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद अल्लाह तआला और जिब्रील अलैहिस्सलाम ने उन्हें सलाम भेजा।
हज़रत अबू हुरैरा अन्हु से रिवायत है कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया:
"जिब्रील मेरे पास आए और कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! खदीजा आ रही हैं, उनके पास खाना या पानी है। जब वह आपके पास आएं, तो उन्हें उनके रब (अल्लाह) की ओर से सलाम कह देना और मेरी तरफ़ से भी सलाम कहना, और उन्हें जन्नत में एक ऐसे महल की खुशखबरी देना, जो मोतियों से बना होगा, जहाँ न कोई शोर होगा और न कोई तकलीफ।" (सहीह बुखारी: 3820, सहीह मुस्लिम: 2432)
इंतकाल और रसूलुल्लाह ﷺ का ग़म
हज़रत खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा का इंतकाल नुबूवत के दसवें साल में हुआ। इस साल को "आमुल-हुज़्न" (ग़म का साल) कहा जाता है, क्योंकि इसी साल रसूलुल्लाह ﷺ के चाचा अबू तालिब का भी इंतकाल हुआ था।
आप ﷺ ने उनकी कब्र खुद अपने हाथों से तैयार की और बड़े ग़म में डूब गए। हज़रत खदीजा की कमी ज़िंदगी भर आपको महसूस होती रही।
हज़रत खदीजा और रसूलुल्लाह ﷺ का निकाह सिर्फ एक शादी नहीं थी, बल्कि इस्लामी इतिहास का एक रोशन बाब था। यह मोहब्बत, वफ़ादारी और कुर्बानी की बेहतरीन मिसाल है। उनका किरदार हर मुसलमान मर्द और औरत के लिए एक आदर्श है, जो सच्चे रिश्तों की अहमियत को समझना चाहता है।